भूमिका के बहाने...
जब हम दसवीं में थे, तब हमारा एक क्लब हुआ करता था- "पैन्थर्स क्लब"। हमलोग एक पुस्तकालय चलाते थे- पी.सी. लायब्रेरी (पैन्थर्स क्लब लायब्रेरी; एक साल बाद नाम बदलकर रखा था हमने- प्रेमचन्द पुस्तकालय)। बाद में- जहाँ तक मुझे याद है- हमारे क्लब के सदस्यों की संख्या 14 हो गयी थी; लेकिन जब 1983 के स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर हमने इस हस्तलिखित पत्रिका "किशोर पताका" को प्रकाशित किया था, तब हम 11 ही रहे होंगे- क्योंकि इन्हीं का नाम पत्रिका में है।
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अगले वर्ष- 1984 में, हमारे पुस्तकालय की प्रथम वर्षगाँठ पर हमने एक "स्मारिका" प्रकाशित करवायी- लगभग 50 पन्नों की। इसे हमने साहेबगंज के सन्थाल पेपर इण्डस्ट्रीज के प्रेस से छ्पवाया था। इसी वर्ष हमने मैट्रिक की परीक्षा भी दी थी। यानि एक ओर हम "स्मारिका" की तैयारियों में लगे थे, तो दूसरी तरफ मैट्रिक परीक्षा में अच्छा परिणाम लाने का हम पर दवाब था। बहुत ही मुश्किल दिन थे वे! "स्मारिका" से बहुत-सी बातें जुड़ी हैं- उनका जिक्र कभी कहीं और... ।
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हमारे उच्च विद्यालय के वरिष्ठतम शिक्षक हजारी बाबू (श्री गीता प्रसाद हजारी। ईश्वर उन्हें लम्बी उम्र दे।) ने हमारे समूह को "शाही बदमाश गैंग" का नाम दे रखा था- जैसा कि सतीश के माध्यम से हमें पता चला था। दर-असल हमलोग पढ़ाई में अच्छे थे, हम बरहरवा के इज्जतदार घरों से आते थे- मगर जरूरत पड़ने पर हम बागी रूख भी अख्तियार कर लेते थे। (उन घटनाओं का जिक्र कभी कहीं और... ।) इसलिए शायद हमें 'शाही' व 'बदमाश' दोनों कहा गया था।
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हालाँकि प्रधानाध्यापक महोदय- श्री कुमुद नारायण सिन्हा (ईश्वर उन्हें भी लम्बी आयु प्रदान करे) से डरते हम सभी थे। एक (बदमाशी से जुड़े) मामले में प्रधानाध्यापक महोदय ने हमलोगों को लक्ष्य कर चुनौती दी थी- 'हम अभी और 20 साल तक हेडमास्टर रहेंगे और इस बीच यह देख लेंगे कि तुमलोगों में से कौन क्या बनता है!' ईश्वर को लाख-लाख शुक्रिया कि हममें से प्रायः सभी ने अपने-अपने क्षेत्र में अच्छा काम किया है। हममें से कई इंजीनियर, चार्टर्ड एकाउण्टैण्ट, पी.ओ., सफल व्यवसायी इत्यादि बने- कोई भी गलत रास्ते पर नहीं गया।
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2005 के स्वतंत्रता दिवस पर सोचा गया कि क्यों न 2009 में फरवरी-मार्च के आस-पास हम "बरहरवा उच्च विद्यालय" के 1984 बैच के पूर्व विद्यार्थीगण एक "पुनर्मिलन समारोह" का आयोजन करें! 2009 इसलिए कि यह 25वाँ साल होगा- यानि "रजत जयन्ती पुनर्मिलन समारोह"! (यह आइडिया सतीश के दिमाग की उपज थी- हालाँकि जल्दी ही इस बारे में वह लापरवाह दीखने लगा था।) बरहरवा में रहने वाले सारे पूर्व छात्र तैयार हो गये; बाहर रहने वाले भी तैयार थे, मगर समारोह के समय को लेकर उनमें सहमति नहीं थी। आनन-फानन मे फिर से "पैन्थर्स क्लब" का गठन हुआ- इस बार इसकी सदस्यता 1984 में बरहरवा उच्च विद्यालय से मैट्रिक देने वाले हर पूर्व विद्यार्थी के लिए खुली थी।
घनश्याम की दूकान पर एक शाम बैठक भी हुई, समितियाँ या कार्य दल बने, कार्यक्रम बने कि सुबह शिक्षकों को सम्मानित किया जायेगा, दोपहर सपरिवार प्रीतिभोज होगा तथा शाम को सांस्कृतिक कार्यक्रम! रविकान्त ने एक और बैठक की बात कही, मगर वह अगली बैठक कभी हुई ही नहीं। 2008 के अगस्त में एस.बी.आई. में भर्ती होकर मैं अररिया चला आया और बरहरवा के मेरे साथियों ने मेरी उपस्थिति के बिना इस समारोह की तैयारियाँ को आगे बढ़ाने से साफ इन्कार कर दिया। (जून'2005 में वायु सेना से अवकाश लेने के बाद मैं बरहरवा में ही रहकर डी.टी.पी. का कार्य कर रहा था।)
..तो इस प्रकार, अपने शिक्षकों को हम सम्मानित नहीं कर पाये। मेरे साथी इसे किस रुप में लेते हैं पता नहीं; मैं अपने बारे में सोचता हूँ- कि मैं स्वार्थी हूँ इसलिए यह आयोजन नहीं कर पाया; साथ ही, मेरे दिल में इसका पश्चाताप सदा बना रहेगा...
पहले तपेश बाबू का निधन हुआ था, फिर दिनेश बाबू का और अभी 2011 के 1 नवम्बर को ('छठ' वाले दिन) गोपाल बाबू का भी निधन हो गया... हम उनकी आत्मा की शान्ति के लिए प्रार्थना ही कर सकते हैं बस...
अररिया जयदीप शेखर (मोनू)
24 दिसम्बर' 2011
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