दोनों भौंचक! हिटलर ऑव हाई स्कूल श्री राम नारायण सिंह की यह आवाज?
"अरे भाई, आईये न, बैठिये।" हेडमास्टर साहब ने स्वयं उठकर दो कुर्सियाँ सरका दीं, "बैठिये।"
दोनों थूक घोंटते आगे बढ़े।
"बैठिये न।"
टेबल पर सिगरेट की एक डिब्बी और एक दियासलाई पड़ी हुई थी।
हाँ, कोने में दो पतिचित कण्डेल की छड़ियाँ भी टिकी थीं।
"हूँ लीजिये, सुलगाईये। इससे अधिक तो आपकी सेवा तो मैं कर नहीं सकता।" दियासलाई की तीली निकालते हुए हेडमास्टर साहब बोले और दो सिगरेट उन्होंने बढ़ा दिया।
शेखर रूआँसे स्वर में फुसफुसाया, "माफ कर दीजिये सर। अब...."
"माफ कर दूँ।" हठात् हेडमास्टर साहब असली रुप में आये। उन्होंने झट एक छड़ी निकाली, "चलो हाथ निकालो।"
शेखर ने हाथ आगे बढ़ा दिया। सड़ाक-सड़ाक कर छड़ी बरसने लगी। दस-पन्द्रह बार में ही छड़ी फट गयी। तब उन्होंने दूसरी छड़ी उठा ली और सलीम की हथेलियों पर बरसते हुए यह भी फट गयी।
दोनों सिर झुकाये सिसकियाँ ले रहे थे।
तभी हेडमास्टर साहब ने उन दोनों को अपने अंकों में भरकर कहा, "देखो बच्चों, तुम्हीं देश के भविष्य हो। तुम्हीं कल के राजेन्द्र, रवीन्द्र और सुभाष हो। बोलो तुमलोग छुपकर सिगरेट पीकर यह कौन-सा अच्छा कार्य करते थे? इससे तुम्हारे देश का क्या भला हो रहा था?"
उनके एक-एक सरल शब्द शेखर, सलीम के शरीर पर मानों कोड़े बनकर बरस रहे थे।
"अच्छा जाओ बच्चों, अच्छा कार्य करो, मेरी शुभकामनायें ही तुम्हारे साथ है।"
दोनों अब ऐसा कभी नहीं करने के दृढ़ संकल्प के साथ बाहर निकले।