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था... कहीं हेडमास्टर साहब को कोई गलतफहमी तो नहीं हो गयी? या चपरासी तो नहीं गड़बड़ा गया? दोनों के दिमाग में यही घूम रहा था।

      हठात् सीढ़ियाँ उतरते-उतरते शेखर रुक गया। गंगा के थोड़ा आगे बढ़ते ही वह सलीम के कान में फुसफुसाया, “कहीं हेडमास्टर साहब को हमारे सिगरेट पीने के बारे में तो पता नहीं चल गया?”

      अरे, यह तो सलीम ने सोचा ही नहीं था! जरूर यही बात होगी, तभी तो दोनों को साथ बुलाया गया है!

      “पर पता कैसे चल गया होगा?” शेखर फिर चलते-चलते बुदबुदाया।

      “याद है...” सलीम बोला, “कल शाम जब हम रेलवे क्वार्टर के पीछे मटरगश्ती कर रहे थे, उस समय काली फुलपैण्ट पहने एक आदमी उधर से गुजरा था। हमें तो केवल फुलपैण्ट ही दीखा था- झाड़ियों में से। जरूर वही होंगे! हमारे पीछे पड़े होंगे।”

      शेखर ने एक गहरी साँस छोड़ी। अब तो भगवान ही मालिक है। वे नीचे चिकने बरामदे से गुजर रहे थे। सभी कक्षाओं में पढ़ाई चल रही थी। कोई-कोई इन दोनों को एक नजर देख लेता।

      हेडमास्टर साहब के कक्ष के सामने रंग-बिरंगा पर्दा लटक रहा था।

“जाओ अन्दर।” गंगा ने किसी कमाण्डर की तरह आज्ञा दिया। 

"उल्लू का पट्ठा!" सलीम धीरे से बुदबुदाया।

शेखर मन-ही-मन बोला, "तुम जब होते न हमारे तरह छात्र, तब समझ में आता कि राम नारायण सिंह किस चिड़िया का नाम है! तुम तो बच्चू चपरासी हो।"

"कौन है गंगा- वही दोनों?" पर्दे के पीछे से एक सर्द आवाज उन दोनों को मानों चीर गयी।

"जी सर।"

"अन्दर भेजो।"

"जाओ।" गंगा ने फिर रोब डाला।